उसने अपने कोट के बटन कंठ तक बंद किए और हथेलियाँ रगड़कर गालों पर लगाई। हज़ारों मील और दो मौसमों की दूरी कुछ घंटों में पार, धरती छोड़ी तो मुम्बई का समुद्री पवन और उतरो तो टोक्यो की हिमानी हवा।

“टोक्यो के वसंत में आपका स्वागत है”, उतरने से पहले पॉयलट ने घोषणा की थी, “आप भाग्यशाली हैं कि चेरी ब्लॉसम वाले सप्ताहांत में आप इस खूबसूरत शहर में हैं। डाउन टाउन गिंजा की साकूरा डोरी, हिबिया पार्क, इम्पीरियल पैलेस के आस-पास और टोक्यो के सभी उपनगरों में चेरी के श्वेत गुलाबी फूल खिल रहे हैं।”

वसंत? कहाँ का वसंत? तापमान 8 डिग्री और हवा की रफ़्तार 45 किलोमीटर प्रति घंटे। पिछले साल भी टोक्यो में चेरी ब्लॉसम देखे थे। “एक ही कम्पनी में साथ काम करने का फायदा!” एक आंख बंद कर शरारत से गोल किये होंठ। “मैंने ऑफिस की ब्लॉसम व्यूइंग पार्टी के लिए मना कर दिया है। एकदम नया बहाना। कहा वसंत से मेरा आइडियोलॉजिकल डिसएग्रीमेंट है। ‘दे लुक्ड सो कंफ्यूज्ड’!” पूरे कंठ की मुक्त हंसी… किसने किसको पहले चूमा था? शायद उसी ने… वीकेंड पर साइकिलें ली थी। चौड़ी सड़कों और सूनी संकरी गलियां होते हुए इम्पीरियल पैलेस के पूर्व में निकले तो कतार में फूलते ‘साकूरा’ देख कर अवाक रह गई थी… डालियों पर जाने कैसे टिके, काले गुट्ठल तनों पर जहाँ-तहां चिपके चेरी के फूल… जादुई, भंगुर, सपनीले और बिल्कुल बेजोड़। “यार, बहुत ज्यादा हाइप है, चेरी ब्लॉसम, माउंट फ़ूजी, अराशियामा का बम्बू फॉरेस्ट, हर चीज को बढ़ा चढ़ा कर!…” उसने अपने सिर को हल्के-हल्के झटका। वसंत में फिर से इस शहर में आना… क्या परखना चाहती हो लड़की कि भीतर कुछ बदला? निहायत बेवकूफ़ हो।

शहर जाने वाली लिमोजीन बस दस नम्बर के स्टॉप पर आ लगी थी। “टी कैट, टोक्यो स्टेशन, निहोमबाशी।” नारंगी-सफ़ेद, बस के ही रंग की यूनिफार्म पहने युवक मद्धम सुरों में दोहराता हुआ लाइन में खड़े यात्रियों का टिकट बारी-बारी से जांचने लगा। सफेद दस्ताने पहने लड़की ने उसका सामान लगेज कम्पार्टमेंट में रखा और कमर से झुककर उसे बस की ओर बाँह बढ़ा रुख़सत किया। “सच ड्रामा!” “लेकिन मोहक।” “बहस मत करो, दिस इजन्ट ऑफिस।” ठहाके और कमर घेरती बाँह…

“प्लीज़ पुट ऑन योर सीट बेल्ट।” बस के दरवाज़े बंद हुए और उसने सीट बेल्ट बांध ली। खिड़की से बाहर वेग से फिसलती सड़क के दोनों ओर धातुई फेंस से बंधे पाइन और देवदार के जंगल थे और छोटे-छोटे विचित्र आकारों वाले होटल। लव होटल्स। ‘प्यार के मारों के लिए जिन्हें टोक्यो की भीड़-भाड़ में एकांत चाहिए। बॉम्बे में भी हों तो कितनी सहूलियत हो जाए!” पिछले साल भी बसंत इतना ठंडा था क्या? होटल के बिस्तर में देहों में दौड़ती फुरफुरी ठंड की थी या…? बस उपनगरीय टोक्यो से गुज़र रही थी। कैमीलिया और पियोनी के फूलते झाड़, बागों में जॉगिंग करते जोड़े, प्रैम में बच्चे घुमाती युवा माएँ। बर्फ-सी धारदार हवा के बावजूद इनके लिए वसंत आ गया है, उसे महसूस करने वाली मेरी इंद्रिय ही शायद निकम्मी हो गई हैं… “मारुनोचि-गिंजा, प्लीज़ टेक ऑल योर लगेज।” बस होटल पर रुकी, अट्ठारहवीं मंजिल पर, रिसेप्शन तल के सामने।

“क्या गंवारों की तरह देख रही हो! एलिवेटेड एक्सप्रेस-वे है, टियर्ड सड़कें हैं ट्रेफिक मैनेज करने के लिए।”

“टोक्यो के नगरीय जादू के सामने किसे नहीं लगेगा की गाँव से आए हैं?”

“मुझे नहीं!”

“तुम्हारा गाँव तो इतना छोटा है कि उसका नाम भी गाँव से बड़ा है!”

छल्लों में एक दूसरे से उलझी सड़कें, रेल पटरियाँ, काँच की चित्र विचित्र इमारतें, रोशनी के रत्नों से जड़ा दायकनराशा का विशाल हवाई झूला, स्काय-ट्री की आकाश भेदती इस्पाती सुई। शीबूया का विस्तृत क्रोसिंग पार करते लोगों के रेले। हल्के रंगों के ऑटम कोट्स और ऊंची एड़ी वाले जूतों में रेशमी बाल झुलाती टोक्यो की फैशनेबल स्त्रियां। वह चमत्कृत हो गई थी।

“हाऊ प्रिटी। तस्वीरों जैसी दिखती हैं, नहीं?”

“क्या सलीक़ा है। व्हॉट टेस्ट। यार तुम यह मनहूस सी नीली जैकेट और आंटीनुमा जूते मत पहना करो यहाँ…”

वह नीली जैकेट अब कहाँ है? वाकई बेवकूफ हो तुम लड़की, यह सब लगातार लूप में बजता रहेगा तो उबरोगी कैसे? जस्ट स्टॉप इट।

फ्लाइट सुबह जल्दी उतरी थी, उसका कमरा तैयार नहीं था। होटल की लॉबी में एक सुगंधित गर्माहट थी जैसे भीतर भी वसंत आया हो। गुलदानों में बादलों से घुमड़ते बैंगनी ऑर्किड्स, और जहाँ-तहाँ ईस्टर की तैयारी में सजे रंग-बिरंगे अंडे। “सम कॉफी? और यू’ड लाइक मसाला टी’।?” रिसेप्शनिस्ट ने रंगीन, हरी-सुनहली, पलकें झपकाई । “यार, सुबह-सुबह कॉफ़ी पीकर मुँह बासी हो जाता है। सुबह-सुबह तो बस मसाला चाय…”। उसने सिर हिलाया। “कॉफ़ी प्लीज़। लाटे, विद शुगर।”

कमरा पैंतीसवीं मंजिल पर था। खिड़की से दिखती टोक्यो की अपूर्व स्काई लाइन। “स्पेक्टेक्युलर, है कि नहीं? शहर की ऊंचाईयों में प्यार। टू मेक लव अमंग रूफ टॉप्स!” नहा लेना चाहिए और फिर कुछ देर गहरी नींद, प्लेन वाली टूटी-उचटी और विचित्र सपनों से भरी नींद नहीं… अगर सारा दिन और सारी रात सोती रहूं तो ठीक… कल मंडे और काम…

बाथरूम में गर्म-ठंडे पानी के शावर और हैंडलों से हमेशा वाली उलझन हुई, इस ओर घुमाने से पानी सुखकर गुनगुना होगा या बर्फ सा ठंडा? अनजान बन्धे नियमों पर चलने वाला कुछ भी समझने में उसे हमेशा अड़चन रही है। “दरवाजा खोलो तो मैं सेट कर देता हूँ, वैसे भी क्लोज्ड डोर्स टेम्पट, हनी!” अब सब दरवाजे बंद…

नहाकर होटल का नरम बाथरोब पहन, खुले, सीले बालों सहित वह बिस्तर पर जा लेटी। मोटे पर्दों ने दिन की चमकीली रोशनी को बाहर ही रोक रखा था लेकिन उसकी बन्द आंखों में रह रह कर कुछ कौंध जाता और शरीर में लहरें दौड़ जातीं। इस तरह चित-पट होने का क्या फायदा लडकी, तुम जानती हो तुम्हें नींद नहीं आएगी। होटल के इस बिस्तर में अनगिनत स्पर्शों की स्मृतियों के साथ अकेले तो बिल्कुल भी नहीं। वह उठ पड़ी। कपड़े बदले। होंठों पर अपनी सबसे खुशनुमा रंग की लिपस्टिक लगाते हुए उसने आईने में खुद को एक बार देखा। वसंत के इस दिन के लिए यह रंग ठीक है या नहीं कौन जाने। द्वार पर प्रिमरोज़ पीत रंग की चुस्त-दुरुस्त वर्दी पहने लड़की ने कमर से झुककर अभिवादन किया। “परफेक्ट डे फ़ॉर चैरी व्यूईंग।” उसके चेहरे के अनिश्चितता को लक्ष्य करते हुए लड़की ने टोक्यो शहर का नक्शा निकाला। “हियर, हियर एंड हियर।“ उसने नक्शे पर जगह जगह लाल रंग से निशान लगा दिए। “बेस्ट व्यूज़। पर्सनली आइ लाइक उएनो पार्क। यामानोते लाइन, फोर स्टॉप्स।“ और चुस्ती से नक्शे को मोड उसके हाथों में थमा दिया।

शिमबाशी स्टेशन के भीतर वसंत की याद-दिलाई में चारों तरफ चेरी फूलों के पोस्टर्स टँगे थे और छत से काग़ज़ी साकूरा की झालरें लटक रहीं थीं। हर तरफ चेरी सिरप की मीठी गन्ध और मन्थर सरकती भीड़। उसने अपनी चाल सायास धीमी की। इतना तेज चलने की क्या ज़रूरत है? जैसे 12:36 की ट्रेन पकड़ना बेहद ज़रूरी हो, जैसे उस तरफ कोई प्रतीक्षा कर रहा हो, बार बार बेचैनी से हाथ घड़ी देखता हुआ। हमेशा जल्दबाज़ी, बेवजह आतुरता… ट्रेन के अगुआई झोंके से उसके बाल कंधों पर लहरा उठे।

ट्रेन के दरवाजे के ऊपर बने यामानोते लाइन के नक्शे पर उसने अपना स्टेशन ढूँढा – युराको चो, कांडा, अकिहा बारा, उएनो। बाहर सिर-माथे पर बड़े बड़े बिल बोर्ड्स साधे बिल्डिंगों के झुरमुट थे। “टोक्यो के बिलबोर्ड्स भी! तुमने वह पीले रंग वाला देखा? नहीं? अरे वापस मुड़ना होगा तब तो! यह पढो- हियोको, जापान्स फेवरेट क्यूट चिकशेप स्नैक! इस हिसाब से तो मेरा फेवरेट स्नैक तुम हो!” चुहल से चमकती आँखे, ठोढ़ी के आस-पास गड्ढे… “उएनो स्टेशन, डोर्स विल ओपन टू द लेफ्ट।”

स्टेशन की चौखूँटी इमारत के बाहर दिन अब झिलमिला रहा था। लोगों के रेले के साथ उसने सड़क पार की। पार्क के बाहर फुटपाथ पर फूलता चेरी का पेड़ था, गुलदार शाखाएं धरती तक झूल रही थीं। उसने हाथ में थमे नक़्शे पर नज़र डाली – वीपिंग चैरी का प्रसिद्ध पेड़। पेड़-तले तीन-चार अधेड़ औरतें हरे, बैंगनी, फिरोजी कीमोनो और चमकदार गेता चप्पलें पहने कैमरे के लिए मुस्कुरा रही थीं। उनके यत्न से सँवारे बालों में नाज़ुक आभूषण काँप रहे थे। कैमरा पकड़े आदमी ने जापानी भाषा मे कुछ कहा और स्त्रियाँ अपने रंगे होंठों पर उंगलियों की ओट देकर हंस पड़ीं। “यार ऐसे घूरना नहीं चाहिए। यहाँ इसे बहुत ‘रूड’ माना जाता है।” सायास दृष्टि हटा कर वह बाग़ में दाख़िल हो गई।

पार्क के भीतर फ़ुटपाथ के दोनों तरफ़ चैरी के पेड़ों की क़तारें थी। चेरी की फूलती डालों में सफ़ेद कपोत उमग रहे थे। पेड़ों के नीचे, गुलाबी आभा वाली छाया में नीले प्लास्टिक के टुकड़े बिछाए लोग बैठे थे- पूरे के पूरे परिवार, दफ़्तर के सहकर्मियों के दल, प्रेमी जोड़े। नीची फ़ोल्डिंग टेबलों पर बेंटो बॉक्स, तरह तरह के केक, साके और किरिन बीयर के जग, जहाँ-तहाँ घास में दौड़ते बच्चे और पालतू कुत्ते, रह-रह कर गूँजते कहकहे। पार्क के एक कोने में ‘कियो मिज़ू कैनॉन’ बुद्ध के मंदिर की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर लोगों की भीड़ थी। पैरों से चिकनी हुई पत्थर की सीढ़ियों पर, असम्भव लगने वाले एड़ीदार जूतों में फिसलती अपनी साथिन को कमर से थामे एक युवक उतर रहा था। साकूरा के-से गुलाबी रंग का फूलदार किमोनो पहने एक युवती अपने साथी का धूप और साके की गरमी से पसीजा माथा पोंछ रही थी। भीड़ में सिर भन्नाने लगा। उसने अपना जैकेट उतार डाला और अँगुलियों से आँखें सहलाईं। खाने पीने को कुछ लेकर आना चाहिए था, ईनारी या राइस बॉल्स, ठंडी सेंचा चाय की बोतलें। वह पेड़ों के नीचे, मंदिर के पास यहाँ-वहाँ रखीं पत्थर की बेंचों पर बैठने की जगह तलाशने लगी। मुख्य मार्ग से कुछ हटकर घास के एक टुकड़े पर लोहे का ढक्कन चढ़ा चौकोर चबूतरा था। शायद नीचे परनाला था, बरसात के पानी को भीतर-भीतर बहने देने के लिए। चबूतरे के एक छोर पर चालीस या पचास सालों का एक आदमी बैठा था। उसने कनखियों से देखा, आदमी बीन जैम बन खा रहा था, उसकी बग़ल में रखे थैले से बीयर की बोतलें झाँक रही थीं। “तुम कभी भी किसी की उम्र गैस नहीं कर पाती हो, उम्र क्या कुछ भी गैस नहीं कर पाती, सब बताना पड़ता है। नाम को भी इमेजिनेशन नहीं।” एक क्षण की झिझक के बाद वह चबूतरे के दूसरे छोर पर पीठ घुमा कर बैठ गई। उसके ठीक सामने औरतों का एक दल बैठा था। सभी उम्रों की औरतें थीं उसमें, दादी- नानी से लेकर छोटी बच्चियों तक। वे काग़ज़ के पंखे झल रही थीं, बतियाती और धीरे धीरे हँसती हुईं। उस दल में से एक किशोरी उठी। छरहरी, हंसिनी सी लम्बी गर्दन और आभामय मुख। वह केक का एक बड़ा डब्बा कुछ दूर बैठे मर्दों के दल को दे आई। शायद एक ही परिवार के हैं, उसने मर्दों वाले दल को ग़ौर से देखा। सबके चेहरे साके से लाल-गुलनार, सब मिल कर एक जवान लड़के को सीधे जग से ही बीयर पीने के लिए उकसा रहे थे। लड़के की क़मीज़ पसीने और बीयर से भीग उठी थी। सहसा चबूतरे के उस छोर पर बैठा वह चालीस-पचास साल का आदमी ज़ोर से गा उठा। उसने गर्दन टेढ़ी कर आँखों के कोनों से देखा। आदमी का चेहरा पसीने से तर था और कंठ की नसें तनी हुई थीं। वह अपनी लाल आँखों को लगातार झपक रहा था। जिस तरह अचानक उसने गाना शुरू किया था उसी तरह चुप भी हो गया और अपने खाने के डिब्बे में आँखें गड़ा कर बड़बड़ाने लगा। वह कुछ घबराई। ठीक-ठाक तो है यह? हालाँकि अपने-आप से बातें करने में बुराई ही क्या है? अपनी बात अपने से ही कह-सुन पाना ज़रूरी है, बेहद ज़रूरी। आदमी ने थैले से बीयर की बोतल निकाली और चबूतरे के सिरे पर साध, तिरछी हथेली ढक्कन और गर्दन के ठीक बीच में मारी। बोतल खुल गई और धातु का ढक्कन निःशब्द घास में गुम गया। उसने सिर घुमा लिया। हंसिनी सी लड़की अबकी पुरुषों के उस दल के लिए साके का जग ला रही थी। काँच के नाज़ुक जग में ऐंबर सी सुनहरी शराब और लड़की की नफ़ीस त्वचा पर सुनहरी धूप, बिलकुल फ़ोटो खींचने लायक, उसने सोचा। तभी चबूतरे की धातुई ढक्कन पर गड़गड़ाती एक बीयर की बोतल उसकी जाँघों से आ टकराई। वह चिहुंक कर उठ खड़ी हुई। सब कुछ एक विचित्र तेज़ी से घटा। चबूतरे के उस ओर वाला आदमी भी उचक कर उठ खड़ा हुआ। वह लगातार अपनी नशे से धुँधली आँखें मिचमिचा रहा था और उसके एकदम क़रीब आ गया था, इतना क़रीब कि बीयर की खट्टी गंध वाली साँस उसके गालों को छूने लगी और खाने का डब्बा थामे हाथ उसकी छाती के एकदम पास आ गए। उसकी चीख़ निकल गई। वह बेतहाशा पीछे की ओर हटी और किसी से जा टकराई। मुड़कर देखा तो वही हंसिनी सी लड़की। काँच का जग धरती पर लुढ़क रहा था। लड़की की गुलाबी ड्रेस पर गीलापन काले धब्बे सा फैल गया था। उसके गाल सुलग उठे। “सो सॉरी! सुमिमासेन…” उसने अपना रेशमी स्कार्फ़ लड़की की ओर बढ़ाया। लड़की गीले किमोनो पर दृष्टि गड़ाये मूर्तिवत खड़ी रही। “सुमिमासेन…” दोनों हथेलियाँ जोड़कर उसने जापानी में क्षमा का शब्द दोहराया। लड़की के साथ की स्त्रियाँ लपकी आईं। वे पुचकार में होंठ को गोल किये, झुक- झुक कर ‘बाओ’ करतीं उसके गिर्द घिर आई। हथेलियाँ हिला-हिलाकर कोमल स्वरों में कुछ कहती एक बड़ी उम्र की औरत ने लड़की को हल्के से टहोका मारा। ” डोंट वरी प्लीज़…” लड़की ने धीरे-धीरे कहा और जग उठाकर उन औरतों के साथ लौट गई। क्षण भर के लिए वह उन्हें जाते हुए देखती रही। लड़की का सिर झुका था। वह पेपर नैपकिन फैलाकर अपने कपड़ों का गीलापन सोखने की कोशिश कर रही थी। उसने अपने माथे और आँखों पर हाथ फेरा। सिर दर्द से तड़क रहा था। अब चलना चाहिए, वह अपना बैग उठाने मुड़ी। आदमी अब चबूतरे के दूसरी ओर खड़ा था। पनीली आँखों से उसे देखता, वह घरघराते कंठ से कुछ कह रहा था और बहुत धीरे धीरे अपने हाथ में थमा हुआ खाने का डब्बा उसकी ओर बढ़ा रहा था। उसने हतप्रभ हो देखा- डब्बे में ‘सकूरा’ फूल के आकार का एक ‘बीन जैम बन’ था। आदमी की आँखों में अटके आँसू गालों पर ढ़लक आए थे, होंठों के कोने काँप रहे थे। उसने हाथ बढ़ाकर बन उठा लिया। “अरीगातो गोज़ाईमास”, वह फुसफुसाई, “थैंक्स…”

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यह कहानी अनुकृति उपाध्याय के कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ से ली गयी है। दस कहानियों का यह संग्रह अमेज़न पर उपलब्ध है।

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